गुरुवार, 17 मार्च 2011

असर तो है ...............




खेतों में सरसों का रंग और चटक हुआ
लहराया मेरा आँचल चुनरी का कसूमल

गालों के भंवर मुस्कुराते रहे गुलाबी
रंगत चेहरे की हुई और सुर्ख रतनारी

कदम नापते रहे दूरियां आसमानी
रंग सुनहरा बिखेरती रही चांदनी

सिलबट्टे पर चढ़ी रही मेहंदी हरियाई
चक्की में पिसता रहा मक्का पीतवर्णी

साबुनी- झाग भरे हाथ
झिलमिलाते रहे इन्द्रधनुषी

सिंक में बर्तनों की खडखडाहट
बन गयी गीत फागुनी


खड़े रहे ....हाथ बान्धे ....
सर झुका ....कतारबद्ध
रंग सारे आबनूसी ...

दुआओं में उसकी
असर तो है ....!!



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नोट ....कविता में लय , तुकांत , बहर, कुछ मत ढूंढें ...नहीं मिलेगा .....गौतम राजरिशी जी के ब्लॉग पर टिप्पणी करते हुए आये कुछ खयाल ...बस ऐसे ही लिख दिए ....
चित्र गूगल से साभार

एक पुरानी पोस्ट ज्ञानवाणी से

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

अवाक होने के चक्रव्यूह से बचने और निकलने की कविता ....

रश्मि प्रभा जी की कविता " अनुत्तरित ही सही " पढ़ी ...सोचती ही जा रही थी कि कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं , वे हमने स्वयं अपने आपसे किये या हमसे अथवा प्रभु से पूछ लिए गए ...इन्ही दिनों हाथ लगी इस माह की अहा! जिंदगी , हर बार इस पत्रिका से कुछ न कुछ नया उत्साहपूर्ण/बेजोड़ मिल जाता है ...इसी मे पढ़ी चंडीदत्त शुक्ल जी की कविता " अपने ही गर्भ में छिपा लो " ...पढ़ते हुए अपनी एक पुरानी कविता याद आ गयी , चक्रव्यूह में घिरने से पहले ही लौट आने की को कहती कविता ...दो शब्द मिले थे मुझे , उन्ही के ताने- बाने में बुनकर जाने कैसी कल्पनाओं में एक कविता का जन्म हुआ ...भान होने लगा कि सृष्टि में कहा- लिखा एक भी शब्द अनुत्तरित नहीं होता , प्रतिध्वनि की की तरह लौट आता है , कभी स्वयं वही शब्द , कभी जवाब स्वयं !


अपने ही गर्भ में छिपा लो ...सिखा दो ...अभेद्य मंत्र

अनजाने चेहरों वाली
सीमाओं से पार
भाषाओँ से इतर
कई तस्वीरें
देखी ..सुनी ...पहली -पहली बार
तुम्हारे ही संग
उनमे बसा प्रेम
उभरा तब तुम्हारी आँख से
छलका हमारे होठों तक
आज फिर
गया उसी दौर में
पर अबूझ रह गए वो चित्र
जड़ है नायक
स्थिर नायिकाएं
ना वहां युद्ध था
ना प्रेम
था तो बस एक अटूट एकांत
सन्नाटा ! जिसे चीर पाना नहीं मुमकिन मेरे लिए
बिना तुम्हारे
अब अपने ही गर्भ में छिपा लो
जन्म देने से पहले सिखा देना
अवाक हो जाने के चक्रव्यूह से निकलने का अभेद्य मंत्र !

......चंडीदत्त शुक्ल

और अब मेरी कविता ...

लौट तो आना ही होगा ....

तुम्हे लौट कर आना ही होगा
कि हो सकूँ
इस अपराध बोध से मुक्त
स्नेहासिक्त हो अनजाने ही कही
मैंने ही तो नहीं दिया
बाधित कर दे जो सृजन
उन अँधेरी गुहाओं को तुम्हारा पता
जिन पर मीलों सफर किया मैंने तनहा
कि अब तो अँधेरे में भी देख सकती थी
उजाले की वह किरण
अँधेरी गुफा के आखिरी छोर से आती है जो
या कहीं
स्नेहाधीन हो
तुम स्वयं ही तो नहीं चले आये कहीं
बिछी बिसात पर चल दिए गए प्यादों की तरह
चक्रव्यूह में घेर लिए जाने से अनजान
जिसे भेदने का गुर अभी तुमने सिखा ही नहीं
लौटना ही होगा तुम्हे
खड़े हो जहाँ अभी इसी वक़्त
उलटे पैरों वहीँ से
कितनी जोड़ी आँखें टिकी है तुम पर
जिनमे है विश्वास
रचोगे तुम ही
काव्य -सृजन का नव इतिहास !


रश्मि प्रभा जी और चंडीदत्त शुक्ल जी की कविताओं से खुद की कविता को जोड़ने का मेरा तात्पर्य हरगिज़ ये नहीं है कि मैं स्वयं को उन्हीकी श्रेणी की कवयित्री मान बैठी हूँ , मेरे आदर्श जरुर हैं इस तरह शब्दों के धनी/शिल्पकार !

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बुधवार, 2 मार्च 2011

अहम् ....हम ...

अहम

मना ले तो करीब आऊँ
गले लग जाए तो मना लूं...
कट जाती है
एक पूरी उम्र
पटरियों -सा साथ चलते
इसी कशमकश में
कई बार
यूँ ही
तन्हा ...


मैं -हम

जिद कहाँ थी कि मै तू ही रहे
मैं मैं ही रहूँ
तू भी तू ही रहे
मगर कभी -कभी
हम भी तो रहें .....


वृक्ष

बसंत में जब
गिर रही हो घनी शाखें
टपाटप
पतझड़ में
झरते पीले पातों का
सोग भी मनाता होगा ??


भय

एक खिड़की
एक भय
कई खिड़कियाँ
कई मुखौटे
बड़ा डराता था...
एक दिन
बंद कर दी
सभी खिड़कियाँ
जड़ दिए ताले
और चाबियाँ फेंक दी समंदर में
कर लेना अब समन्दर से दो हाथ!
भय बड़ा कसमसाता होगा ना ...




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